क्या हिन्दू मुस्लिम से नफरत में खुद मुस्लिम बनते जा रहे हैं ?
By Anurag , Edited by Anurag
Published on March 15, 2025
भारत में इस्लाम का आगमन 7वीं शताब्दी में व्यापारियों के माध्यम से हुआ, लेकिन इसका राजनीतिक और सैन्य प्रभाव मुख्य रूप से 11वीं शताब्दी के बाद शुरू हुआ। इस्लामी शासकों और हिंदू राजाओं के बीच संघर्ष का इतिहास सदियों तक चला, जिसमें कई दौर में टकराव, मेल-जोल, धार्मिक सहिष्णुता और कट्टरता देखने को मिली।
हिंदू धर्म और इस्लाम के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक मतभेदों के कारण टकराव उत्पन्न हुआ। हिंदू धर्म विविधता, मूर्तिपूजा, कर्म और पुनर्जन्म में विश्वास रखता था, जबकि इस्लाम एकेश्वरवाद, मूर्ति-विरोध और समानता के सिद्धांत को अपनाता था। इन मूलभूत अंतरों के कारण संघर्ष बढ़ा।
भारत में कुछ इस्लामी शासकों ने कई बार कट्टरता (एक्सट्रीमिज़्म) का सहारा लिया, जिसका उद्देश्य राजनीतिक नियंत्रण, धार्मिक प्रभुत्व और आर्थिक लाभ प्राप्त करना था। इन नीतियों ने हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों पर गहरा प्रभाव डाला, जिससे संघर्ष, जबरन धर्मांतरण और सामाजिक विभाजन उत्पन्न हुए।
भारत में कुछ इस्लामिक शासको ने धर्म का सहारा अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए किया। और हिन्दू शासको से उनका सत्ता का ये संघर्ष जनता के बीच धर्म का संघर्ष की तरह प्रस्तुत किया गया। राजा क्योकि उस वक़्त खुद को भगवन का प्रतिनिधि बताकर राज्य करता था तो वह अपने हर कार्य को भगवान का कार्य बताकर जनता को अपने पक्ष में लेने की कोशिस करता था। अब क्योकि कार्य भगवान का है तो जनता सवाल पूछ ही नहीं सकती फिर तो राजा का साथ देना ही पड़ेगा और राजा तो है ही ईश्वर का प्रतिनिधि तो वह गलत हो ही नहीं सकता। इसलिए राजाओ का संघर्ष अक्सर धर्म का संघर्ष बन जाता था। हिन्दू और मुस्लिम राजाओ को तो छोड़िये इतिहास में जब झांकते हैं तो वेद, पुराणों आदि से भी पता चलता है कि राजा अक्सर अपने युद्धों को धर्म युद्ध का नाम देते थे। ऐसे ही प्रमाण हमें इस्लामिक इतिहास में भी मिल जाते हैं। या फिर कहा जाए सारे विश्व में सर्व धर्मों में ऐसे प्रमाण मौजूद हैं।
राजाओ द्वारा निजी युद्धों को धर्म युद्ध का नाम देने के कारण राजाओ का द्वेष अक्सर प्रजाओं का भी आपसी द्वेष बन जाता था और बिना किसी लाभ के प्रजा राजाओ की लड़ाई लड़ने लग जाती थी। जिसका लाभ प्रजा को तो कभी नहीं मिलना था लेकिन राजा अक्सर उठाते थे।
उदाहरण के लिए, महमूद गजनवी ने भारत पर हमला किया जिसका मक़सद केवल और केवल यहाँ की संपत्ति को लूटना था। मंदिरों पर हमला भी केवल उनकी संपत्ति लूटने के लिए था। लेकिन साथ आए सैनिक और लोग तथा उसके राज्य के लोग मुस्लिम थे उसने खुद को बुतशिकन घोषित करके मंदिरो को बर्बाद किया जिससे उसे लूटेरा नहीं अल्लाह का कार्य करने वाला कहा जाए और इन हमलो में जो लोग उसके लिए मारे जाए उन्हें लगे कि उनकी शहीदी अल्लाह के कार्य के लिए हुई है न कि उनके राजा की इच्छाये पूरी करने के लिए। सैनिको को और जनता को जताया गया की कोई ऐतिहासिक कार्य किया है न कि कोई लूट।
तराइन की पहली लड़ाई में, मुहम्मद गौरी ने अपने सैनिकों को "काफिरों के खिलाफ जिहाद" के रूप में लड़ने के लिए प्रेरित किया। लेकिन असल में, उसका मुख्य उद्देश्य दिल्ली और अजमेर के समृद्ध क्षेत्रों पर नियंत्रण था।
तराइन की दूसरी लड़ाई में, खलीफा और इस्लाम के नाम पर युद्ध का प्रचार किया और सैनिकों को जन्नत (स्वर्ग) का लालच देकर प्रेरित किया। किन्तु जीतने के बाद उसने हिन्दू सामंतो को नियुक्त किया और हिन्दुओ को पद भी दिए, फिर ये कैसा जिहाद था। जिहाद का नारा देकर उसने अपनी सेना बढाई और जनता और दूसरे राजाओ को बेवक़ूफ़ बनाकर उनका राजनितिक उपयोग किया।
बाबर की सेना छोटी थी। बाबर के साथ मिलकर युद्ध करना खुदखुशी जैसा था। उसकी सेना में २०००० के आसपास सैनिक थे और लोदी की सेना एक लाख के लगभग थी। ये फर्क बाबर की सेना को डराने के लिए काफी था। बाबर ने ऐसे में अपनी सेना को हिम्मत देने के लिए धर्म का सहारा लिया और गजवा-ए-हिन्द का नारा दिया।
शाहजहाँ दारा शिकोह को बादशाह बनाना चाहता था पर औरंगजेब खुद बादशाह बनना चाहता था। औरंगजेब को बादशाह बनने के लिए अपने पिता और भाई दोनों को क़त्ल या कैद करना था। ऐसा करने से जनता में तथा सेना में विद्रोह हो सकता था। इसलिए उसने खुद को अल्लाह का काम करने वाला दिखाया और दारा शिकोह को काफिर प्रचारित करवाया। शिवाजी महाराज, संभा जी महाराज और सिख गुरुओ से उसकी दुश्मनी पूर्ण राजनितिक थी किन्तु उसने इनकी सेना और जनता में शामिल मुस्लिमो को भड़काने के लिए इन्हे इस्लाम का शत्रु बताने की कोशिस की। और इनके ऊपर अपनी कार्रवाइयों को धार्मिक रूप देने की कोशिस की।
और भी अनेक इस्लामिक शासको का ऐसा इतिहास है और ये इतिहास हिन्दू शासको में भी मिल जाता है। ब्रिटिशर्स के खिलाफ लड़ाई में भी हिन्दू तथा मुस्लिम नेताओ ने धर्म का प्रयोग लोगो को जोड़ने के लिए किया। ब्रिटिशर्स के खिलाफ लड़ाई में भी हिन्दू तथा मुस्लिम नेताओ ने धर्म का प्रयोग लोगो को जोड़ने के लिए किया। किन्तु यह धर्म इन दोनों के बीच खाई बन गया और इसका इस्तेमाल कुछ नेताओ में अपना कद बढ़ने के लिए किया और आम लोगो को नफरत की आग में झोंक दिया। कौन नहीं जानता जिन्ना की गांधी जी से चीड़ ने उसे कट्टर मुस्लिम नेता बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐसे ही सावरकर आदि नेताओ ने अपनी पहचान बनाने और आजाद भारत में अपना हिस्सा सुनिश्चित करने के लिए कट्टर हिन्दू नेता की छवि को अपनाया।
इस लम्बे ब्रैनवॉश ने हिन्दू और मुस्लिमो को रूढ़िवादिता की और धकेल दिया। हिन्दुओ को संयोग से गांधी जी , नेहरू जी, पटेल जी, अम्बेडकर जी जैसे नेताओ का मार्गदर्शन मिला। किन्तु प्रगतिशील मुस्लिम नेताओ ने मुस्लिम समाज के सुधार में उतना काम नहीं किया। इस कारण मुस्लिम समाज में रूढ़िवादिता उन्मूलन उस गति से नहीं हो पाया। मुस्लिम दारा शिकोह, अल मामून, अल हारून, ए पी जे अब्दुल कलाम आजाद, अकबर जैसे नायको को छोड़कर औरंगजेब, गजनवी और बाबर जैसो में अपने नायक ढूंढ़ने लगे। इस रूढ़िवाद ने गरीबी को खींचा और गरीबी ने फिर से रूढ़िवाद को। रही सही कसर सत्ता के भूखे तुष्टिकार नेताओ ने पूरी करदी।
इस रूढ़िवाद और कट्टरता का फायदा हिन्दू नेताओ ने भी भरपूर उठाया। उन्होंने हिन्दुओ को उकसाना और उनके दिल में मुस्लिमो के प्रति नफरत का जहर घोलना शुरू कर दिया। वो हिन्दुओ से गर्व करवाते थे की हिन्दू उदार है, प्रगतिशील है , उसका इतिहास है आदि आदि। मुस्लिमो के बारे में प्रचार किया की मुस्लिम कट्टर है, रूढ़िवादी है।
लेकिन क्या आज हिन्दू भी वही नहीं बनते जा रहे हैं जिससे वो नफरत करते थे।
आज प्रचार किया जा रहा है कि परवरिश कैसी भी हो लेकिन ज्यादा बच्चे पैदा करो क्यों कि नहीं तो हिन्दू कम रह जाएंगे। लेकिन सच्चाई कुछ और है, अच्छी परवरिश वाला पढ़ा लिखा व्यक्ति अपने लायक नौकरी मांगेगा, अपना हक़ मांगेगा, सवाल करेगा। किन्तु इन्हे केवल वोटर्स चाहिए जो इनके इशारे पर लड़ने मरने को तैयार हो जाए, सवाल न करे, बस वोट डालें।
विज्ञान, इतिहास, समाज शास्त्र, गणित जैसे आधुनिक विषय छोड़कर धार्मिक किताबे पढ़ने का प्रचार जोर शोर से हो रहा है। इन धार्मिक किताबो से एक मनुष्य पुरोहित तो बन सकता है पर आधुनिक समाज में योगदान नहीं दे सकता। परन्तु पुरोहितो को भी तो यजमान लगते हैं। बिना यजमानो के पुरोहितो का क्या मोल। और हर कोई हमारे समाज में पुरोहित नहीं बन सकता उसके लिए भी तो वर्ग विशेष से होना अनिवार्य है। फिर बाकि वर्ग क्या करे? वही जो प्राचीन काल में करते थे मतलब जाति आधारित कार्य। लेकिन क्या ये देश को और समाज को आगे ले जा सकती है तो जवाब है नहीं तो आधुकिक शिक्षा तो प्राचीन अवैज्ञानिक सिधान्तो को नकारती है। अगर आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर भी प्राचीन सिद्धांतों से चिपके रहे तो मतलब शिक्षा केवल रोजगार का साधन बनी तो क्या ऐसे लोग अच्छे समाज का निर्माण कर पाएंगे।
जोर शोर से प्रचार हो रहा है कि हिन्दू राष्ट्र का निर्माण हो बिलकुल गजवा ए हिन्द के जैसा। लोगो को बहकाया जा रहा है कि हिन्दुओ के लिए कोई देश नहीं है। जरा कोई उनसे पूछे भारत, अमेरिका, नेपाल, चीन, फ्रांस, इंग्लैंड जैसे अनेको देश क्या हिन्दुओ के लिए नहीं है। एक धर्म निरपेक्ष देश सभी के लिए होता है हिन्दुओ के लिए भी। यही तो उसकी खूबसूरती है। जब हिन्दू या मुस्लिम बेहतर जीवन के लिए जाते है तो मुल्क का धर्म या मजहब नहीं देखते अपितु रोजगार के अवसर और जीवन स्तर देखते है। किसी ने नहीं देखा होगा कि बेहतर जीवन के लिए धर्म देखकर हिन्दुओ को नेपाल जाते हुए या मुस्लिमो को पाकिस्तान जाते हुए। वो अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड या खाड़ी देशो में जाते हैं। मतलब देश में प्रगति और जीवन स्तर महत्वपूर्ण है न की धर्म।
महिला अधिकार कानूनों को मर्द विरोधी करार दिया जा रहा है। कुछ महिलाओ द्वारा इन कानूनों का दुरूपयोग जोर शोर से प्रचारित किया जा रहा है। इसकी आड़ में खुले आम महिलाओ के अधिकारों की रक्षा करने वाले कानूनों को ख़त्म करने की मांग की जा रही है।
दलितों के अधिकारों की रक्षा करने वाले कानूनों को भी निशाना बनाया जा रहा है। प्रतिभा के नाम पर आरक्षण, दुरूपयोग के नाम पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, समानता के नाम पर आर्थिक सहायता जैसे कानूनों को निशाना खुलेआम बनाया जा रहा है।
किताबो की जगह हथियार रखने का प्रचार हो रहा है। गुंडों को देशभक्त कहकर उनके गुणगान गाये जा रहे है। इतिहास पर लांछन लगाए जा रहे है कि वीर प्रशस्तियो को उनमे जगह क्यों नहीं दी गयी। उस पर झूठा होने के आरोप लग रहे है और एक मंगढ़न्त इतिहास को स्थापित करने की कोशिस हो रही है। हिन्दू अपने नायक गांधी, नेहरू, आंबेडकर, मानवेन्द्र नाथ रॉय, असली भगत सिंह, राजा राम मोहन रॉय में न खोजकर सावरकर, गोडसे, मनघडंत भगत सिंह और गुंडों में ढूंढ रहा है।
क्या ये सब वही चीजे नहीं है जिनसे हिन्दू नफरत करता आया था। क्या वो अपनी नफरत में वही सब तो नहीं बनता जा रहा जिससे वो नफरत करता था। क्या वो उनसे भी आगे नहीं निकल गया। तो क्या हम ये न समझ की आज का हिन्दू पूर्ण मुसलिम बन गया है बस उसके रिवाज अलग हैं।